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Writer's pictureKumar Nandan Pathak

कितना बदल गया हैं रंगों का त्यौहार होली - कमल देवी


केपीपीएन संवाददाता उमर फारूक कुशीनगर


कुशीनगर । होली शब्द अपने आप में हर्ष और उल्लास का प्रतीक है। होली हमारे जीवन को रंगीन बनाती है, उसे फिर से खुशियों से सराबोर करती है और खुलकर जीने का एहसास दिलाती है। वैसे तो होली हर बार हम सबके लिए खास होती है, क्योंकि वह हमें अनगिनत हर्ष, उल्लास, प्रेम, आशीर्वाद और हुल्लड़ की यादें दे जाती है। आशा संगिनी पूनम भारती ने कहा कि रंग-बिरंगी होली का त्योहार आपसी समरसता और सौहार्द का संदेश देती है। बचपन के दिनों में सहेलियों के साथ बिताई गई होली की यादें आज भी होली आते हीं ताजा हो जाती है। नये रंग, ढंग से सराबोर इस होली की समृद्ध परंपरा अब धीरे-धीरे लुप्त सी होती जा रही है। होली की उमंग और मस्ती तो मानो इस भागदौड़ भरी जिदंगी में गुम सी हो गयी है। अल्हड़ बचपन की वो यादें आज भी ताजा है जब कई दिनों पूर्व से ही सब पर होली का रंग सिर चढ़कर बोलने लगता था। होली के दिन मां के हाथ के बने पकवान, दिन में सहेलियों संग रंग से होली खेलना और शाम के वक्त सहेलियों के संग उनके घरों पर जाकर गुलाल खेलना, उनका अपने घर पर आना। एएनएम सुधा सिंह ने कहा कि जीवन में विभिन्न रंगों की अहमियत दर्शाने व सामाजिक समरसता का संदेश देने वाली होली महापर्व की समृद्ध परंपरा को जीवित रखने के लिए आज की युवा पीढ़ी को आगे आनी होगी। युवा पीढ़ी को अपने हर पर्व त्योहार से जुड़ी परंपराओं और उसके संदेशों को समझना होगा। आज से तो दो-तीन दशक पहले की होली का जो स्वरूप था आज वह धीरे-धीरे विलुप्त सा हो गया है। आज होली पर्व के नाम पर मानो हम सिर्फ परंपराओं का निर्वहन कर रहे हैं। होली की उमंग और मस्ती भी अब फीकी पड़ गयी है। बचपन की होली, सहेलियों के साथ रंग-गुलाल खेलना, एक-दूसरे के घर आना-जाना। बचपन की होली की यादें आज भी मन को उत्साहित करती है। गृहिणी लीलावती सिंह ने बताया कि होली की तैयारी में कई दिनों पहले से जुट जाना, होलिका दहन और होली के दिन मां के हाथों बने स्वादिष्ट व्यंजनों की स्वाद आज भी होली के दिन याद आ जाती है। बचपन की होली की बात ही कुछ और थी। उस वक्त होली की जो समृद्ध परंपरा देखने को मिलती थी, वह आज नहीं मिलती। गांव-मोहल्ले की महिलाओं और सहेलियों का एक-दूसरे के घर आकर होली खेलना। सबकुछ बीतते समय के साथ बदल सा गया है। आज तो होली का स्वरूप मानो घर की चारदिवारी के अंदर सिमट कर रह गयी है। अब न तो झाल और ढोलकी धुन पर मीठे स्वर में फगुआ के गीत सुनाई पड़ते हैं और न ही पहले वाली होली की मस्ती और उमंग। कितना बदल गया है रंगों का त्योहार होली।

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